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नज़्म
जा रहा है अपनी मंज़िल की तरफ़ माह-ए-तमाम
जैसे क़ब्रों के मुजाविर जैसे मस्जिद के इमाम
शातिर हकीमी
नज़्म
रुख़्सत ऐ दिल्ली तिरी महफ़िल से अब जाता हूँ मैं
नौहागर जाता हूँ मैं नाला-ब-लब जाता हूँ मैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
अभी इक साल गुज़रा है यही मौसम यही दिन थे
मगर मैं अपने कमरे में बहुत अफ़्सुर्दा बैठा था
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
मशरिक़ का दिया गुल होता है मग़रिब पे सियाही छाती है
हर दिल सन सा हो जाता है हर साँस की लौ थर्राती है